स्वस्थ बचपन – स्वस्थ जीवन

स्वस्थ बचपन – स्वस्थ जीवन

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आज ज्यादातर माता पिता अपने बच्चों को स्वस्थ रखने के लिये सभी तरह की जानकारी एकत्र करने के लिये उत्सुक दिखते हैं और ऐलोपथिक से बचने के प्रयास में रहते हैं । ऐलोपथिक चिकित्सा के दुष्प्रभाव व दूरगामी दुष्परिणाम से चिंतित प्रतीत होते हैं ।
सामान्यतया आज से 20 -25 वर्ष पहले ऐसा नहीं था । आज बच्चों की मृत्यु दर में तो कमी आयी है, परन्तु अस्वस्थता का भय व अविश्वास बढ़ा है । पहले की अपेक्षा आज स्वास्थ्य के प्रति असुरक्षा का वातावरण तो बना ही है । कारण भी अनेक हैं ।
 इन सभी कारणों में एक विषय यह कि सामान्य रोगों में भी हम चिकित्सक पर निर्भर होते जा रहे हैं और हमारे दादी नानी के परम्परागत घरेलु प्रयोग आज की व्यवस्था में कहीं खो गये हैं ? जिसके कारण सामान्य जुकाम, खांसी, पेट दर्द, कब्ज, दस्त जैसे बच्चों के सामान्य रोग भी तनाव का कारण बन गये हैं , जिनको कि हमारे घर की माँ आसानी से रसोई के प्रयोगों से ही ठीक कर लेती थी । यह कोई सामान्य बात नहीं है । यह व्यवस्था भारत के प्रत्येक गाँव व छोटे घर में हजारों वर्षों के अनुभवों से सिद्ध होकर पीढ़ी दर पीढ़ी अलिखित हस्तांतरित होती आई है । जो शायद इस पीढ़ी से खोती प्रतीत हो रही है ।
आज तथाकथित विकसित देशों में स्वास्थ्य का खर्च एक बड़ी परेशानी बनता जा रहा है । साथ ही दुनियां भारत के परम्परागत प्रयोगों को समझने व जानने के लिये उत्सुक दिख रही है । वहाँ की सरकारों द्वारा प्रतिबन्धों के बावजूद हर्बल या परम्परागत प्रयोग बड़ी तेजी से बढ़ रहे हैं ।
ऐसे समय में हम भारत की वर्तमान पीढ़ी का दायित्व बन जाता है कि यह जो पीढ़ी जो अगले 10 – 15 वर्षों में इस संसार में नहीं रहेगी और उनसे  हजारों वर्षों से हस्तगत होती आई ‘स्वस्थ जीवन की परम्परा’ को एकत्र कर आने वाली पीढ़ियों को हस्तगत करें । 


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